रविवार, 28 मार्च 2010

हम तो इतना गिरे हुए हैं ( सामयिक परिदृश्य को व्यक्त करतो हुई रचना )

शब्दजाल के चतुर खिलाड़ी ।
लोकतन्त्र की दशा बिगाड़ी ।
स्वार्थ सिद्धि मे
सदा जुगाड़ी ।
इनके आगे सभी अनाड़ी ।

कुर्सी ही सिद्धान्त हमारा ।
यही धर्म वेदान्त हमारा ।
अवसर देखा बदला नारा ।
खोज रहे नित नया सहारा ।

तरह तरह के राग अलापे ।
सारे सुर बेसुरे हुए हैं ।
हम तो इतना गिरे हुए हैं । गिरे हुओँ से घिरे हुए हैं ।

हमने गिर कर क्या क्या पाया ।
सच बिसराया
छल अपनाया ।
षडयन्त्रों को गले लगाया ।
भ्रष्टों के ही तेल लगाया ।

नियम और कानून तोड़कर ।
संविधान का स्वर
मरोड़कर ।
मानवता का शीष फोड़कर ।
जनमानस के हाथ
जोड़कर ।

ऊँचे पद की शपथ
ग्रहण कर ।
लोकतन्त्र के सिरे
हुए हैं ।
हम तो इतना गिरे हुए हैं । गिरे हुओँ से घिरे हुए हैं ।

बिन पैसा हम काम न करते ।
सुबह न करते
शाम न करते ।
ऐश बिना आराम न करते ।
बिना सुन्दरी जाम न भरते ।

पैसा मिले
विचार न कोई ।
हमको दे उधार ले कोई ।
धन के लिए
सभी कुछ हाजिर ।
पद के लिए
सभी कुछ हाजिर ।
बालू से भी तेल निकाला
जन गण मन
सब पिरे हुए हैं ।
हम तो इतना गिरे हुए हैँ । गिरे हुओं से घिरे हुए हैं ।

माँ बहनो का फर्क न जाना ।
देश का बेड़ा गर्क न जाना ।
स्वर्ग न जाना
नर्क न जाना ।
स्वार्थ देखकर तर्क न जाना ।

हालीवुड वालीवुड अपना ।
लगा फिल्म मे पैसा अपना ।
हीरो हीरोइन का सपना । सबको नाम हमारा जपना ।

हमे देख कर खजुराहो के
भित्ति चित्र बे सिरे
हुए हैँ ।
हम तो इतना गिरे हुए हैँ ।
गिरे हुओँ से घिरे हुए हैँ ।

सोमवार, 22 मार्च 2010

अमर सिंह ने सोनिया और राहुल गाँधी की प्रशंसा की । इन्हे रास्ता चाहिए । दिगम्बर चाय को नाश्ता चाहिए ।



खण्डहर ने कहा
हम महलोँ के गुलाम है
एक महल से बाहर खदेड़े गये हैं
इस समय गुमनाम हैं ।
हमारे पीछे की भीड़
छट चुकी है ।
सत्ता की प्रेमिका भी
दूसरोँ से पट चुकी है ।
कैसे हो सकेगी
राज्य सभा मे वापसी ।
चरम सीमा पर है
दुश्मनी आपसी ।

अब हम राहुल सोनिया के
गीत गाएंगे ।
आवश्यकता पड़ी तो
कण्डे पर भी मक्खन
लगाएंगे ।
सोनिया जी इनका भला करे
ताकि गुमशुदा लोगोँ
की भी दुकान चला करे ।



भाई साहब ! इसी तरह
हाथ पैर मारिए ।
कहीँ न कहीँ तो सुधि
ली जाएगी
प्रशंसा के वचन उचारिए ।
कुर्सी बहुत कुछ करवाती है ।
आप कहते
यह ठकुरसोहाती है ।

मंगलवार, 16 मार्च 2010

मान्यवर काशीराम जयन्ती के आयोजन से सिद्ध है कि महापुरुष कितने फलदायी एवं धनदायी हैं । काशीराम तुम्हारी जय हो ।

काशीराम तुम्हारी जय हो । जन्मदिवस पर धन संचय हो ।
रुपयोँ की हर तरफ विजय हो ।
भूख , लूट हो या कि प्रलय हो ।

मायावती हमारी बहना।
उनके आगे मत कुछ कहना ।
जिसको वृन्दावन मे रहना । उसको पड़ता सबकुछ सहना ।

अफसर , नेता , चमचोँ आओ ।
नाचो , गाओ , केक कटाओ । जो लाए हो उसे चढाओ ।
करो बन्द-ना कुर्सी पाओ ।

लोकतन्त्र का कभी न क्षय हो ।
काशीराम तुम्हारी जय हो ।

यह हजार के नोट कहाँ है । इन नोटोँ मे वोट कहाँ हैं ।
वोट जहाँ हैँ वहाँ गरीबी ।
है भौजी गरीब की बीबी ।

उसको कोई कहे न बहना ।
जो भी कहो ? उसे चुप रहना ।
उस बहना का दर्द न जाना । बहनो को किसने पहचाना ?

यह हजार के नोट हार में ।
इससे ज्यादा भरे कार में ।
देते हैं सब इन्हे प्यार में ।
गर्दन फिर भी तनी भार में ।

काशीराम तुम्हारी जय हो । महापुरुष ? किसको संशय हो ।

काशीराम महामानव थे ।
मनुवादी सारे दानव थे ।
रहे कुँआरे जनता के हित ।
माया ने सेवा की नित ।

उनके सपने सच होते हैं ।
माया छोड़ सभी रोते हैं ।
जहाँ नोट हैँ वहीँ देश है ।
नोट भरे होँ , कौन क्लेश है ?

रुपिया लाओ उसे बिछाओ ।
रुपिया पियो उसे ही खाओ ।
रुपिया लोकतन्त्र की जड़ है ।
लोकतन्त्र रुपियोँ की फड़ है ।
फड़ पर यही खेल जारी है । आपस मे मारामारी है ।
यही जयन्ती यही समर्पण । जनता अपनो से हारी है ।

काशीराम तुम्हारी जय हो ।
बार बार ही धन संचय हो ।

शनिवार, 6 मार्च 2010

रति के पीछे पीछे काम साधु संत के काम तमाम

( इस समय साधु संतो की रंगीनियाँ चर्चा मे हैँ । सेक्स स्कैँडिल के केन्द्र आश्रम बन गये हैँ । यही साधु संत जो अपराध की दुनिया मे शोभायमान हैँ , धर्म के मर्म का मंचोँ से नियमन करते हैँ - महिने दो महिने जेल फिर वही खेल )

दिन मे भगवान हो गये ।
रात को जवान हो गये ।

दे दिया उपदेश धर्म का
तुरत आसमान हो गये ।

शिष्योँ के वाण छोडकर
स्वयँ ही कमान हो गये ।

शिष्या को परिणय मे बाँध
बेसुध मुस्कान हो गये ।

आश्रम से कर दिया पलायन छूमन्तरध्यान हो गये ।

2

रति के पीछे पीछे काम ।
इसी ध्यान मे आठो याम ।

धर्म कर्म पर भाषण इनका ।
सबसे ऊँचा आसन इनका ।
आश्रम मे अफरा तफरी है
संध्या ,हवन ,कुशासन इनका ।

हत्या , कब्जा , अनाचार से
कोठी , आश्रम और कार से
षडयन्त्रोँ से कभी प्यार से
सँस्कार सब तार तार से


सिसक रहे फैला कोहराम । रति के पीछे पीछे काम ।

धर्मक्षेत्र के महापुरुष हैँ
सभामध्य यह लव हैँ कुश हैँ पयोमुखम इनकी शैली है
धन से भरी हुयी थैली है ।

उपदेशक हैँ , साधुवेश है ।
माया मोह न रहा शेष है ?
सजा आरती शंख फूँकते
मिटा रहे हर एक क्लेश हैँ ?
भारत माँ का काम तमाम ।
रति के पीछे पीछे काम ।

मृगछाला पर मृगनयनी का आगे पीछे मृदुबयनी का
बदल दिया भूगोल रात को है प्रणाम इस करामात को

साधु संत निशिदिन बसंत हैँ
शिष्याओँ के यही कंत हैँ ।
जो कुकर्म हैँ सब अनंत हैँ ।
आदि अंत मे यह हलन्त हैँ ।

कहाँ राम ? जब इतना नाम रति के पीछे पीछे काम ।

गुरुवार, 4 मार्च 2010

आलोक मेहता ब्लागोँ की स्वायत्तता से क्षुब्ध (संपादकीय, नई दुनिया , होली विशेषाँक )

आलोक मेहता जी मँजे पत्रकार हैँ । नई दुनिया के होली अंक मे उन्होने ब्लागो की निरंकुशता पर खासी चिन्ता व्यक्त की है । ब्लागो के नामोँ पर भी उन्हे कष्ट है । इसके साथ ही बिना संपादित और सेंसर के ही ब्लागों का वेव पर आ जाना आलोक जी के लिए किसी गर्भस्थ संकट का कारण भी हो सकता है , विशेषतः पत्रकारिता के लिए ।

ब्लाग पर कपडा फाड शीर्षक से बुरा न मानो होली है का बहाना बनाकर जो भी लिखा गया , वह वास्तव मे विचारणीय है । राजनीति, पत्रकारिता , धर्म, शिक्षा , प्रशासन सहित समाज के विभिन्न क्षेत्रोँ मे आंशिक या आनुवांशिक पतन हुआ है । ऐसे मे आलोक जी ! समाज के नियामको का कार्य उसे सही दिशा देने का है , हँसी की विषयवस्तु बनाने का नही । वैसे आलोक जी के विचार होली के रँग मे सराबोर होते हुए भी आत्ममँथन का अध्याय जोडता है ।

अनायास-


कवि धूमिल की पँक्तियाँ-
अपने देश मे वेश्याएँ
वक्तव्य दे रहीँ आत्मशोध पर ।
और हिजडे शोध कर रहे लिँगबोध पर ।