गुरुवार, 4 मार्च 2010

आलोक मेहता ब्लागोँ की स्वायत्तता से क्षुब्ध (संपादकीय, नई दुनिया , होली विशेषाँक )

आलोक मेहता जी मँजे पत्रकार हैँ । नई दुनिया के होली अंक मे उन्होने ब्लागो की निरंकुशता पर खासी चिन्ता व्यक्त की है । ब्लागो के नामोँ पर भी उन्हे कष्ट है । इसके साथ ही बिना संपादित और सेंसर के ही ब्लागों का वेव पर आ जाना आलोक जी के लिए किसी गर्भस्थ संकट का कारण भी हो सकता है , विशेषतः पत्रकारिता के लिए ।

ब्लाग पर कपडा फाड शीर्षक से बुरा न मानो होली है का बहाना बनाकर जो भी लिखा गया , वह वास्तव मे विचारणीय है । राजनीति, पत्रकारिता , धर्म, शिक्षा , प्रशासन सहित समाज के विभिन्न क्षेत्रोँ मे आंशिक या आनुवांशिक पतन हुआ है । ऐसे मे आलोक जी ! समाज के नियामको का कार्य उसे सही दिशा देने का है , हँसी की विषयवस्तु बनाने का नही । वैसे आलोक जी के विचार होली के रँग मे सराबोर होते हुए भी आत्ममँथन का अध्याय जोडता है ।

अनायास-


कवि धूमिल की पँक्तियाँ-
अपने देश मे वेश्याएँ
वक्तव्य दे रहीँ आत्मशोध पर ।
और हिजडे शोध कर रहे लिँगबोध पर ।

1 टिप्पणी:

Randhir Singh Suman ने कहा…

अपने देश मे वेश्याएँ
वक्तव्य दे रहीँ आत्मशोध पर ।
और हिजडे शोध कर रहे लिँगबोध पर .nice