विष दो या मुझे
अमरत्व ही दो
पति मान चुकी
घनश्याम को हूँ ।
इन बन्धनोँ मेँ
बँधना है नहीँ
सब त्याग चुकी
धन धाम को हूँ ।
अपना लिया है
अपने प्रिय को
मन दे चुकी
लोक ललाम को हूँ ।
मन मीरा बना
विष पीना पड़ा
अनुमान चुकी
परिणाम को हूँ ।
रविवार, 24 अक्टूबर 2010
शनिवार, 9 अक्टूबर 2010
माँ की असीम शक्ति एक छन्द
अवगाहन मे उस
अमृत तत्त्व के
कौन कहे
अपरूप मे खोया ।
रश्मियाँ दिव्य
विकीर्ण हुई
तो लगा अनमोल
स्वरूप मे खोया ।
साध लिया जब
शाश्वत शक्ति ने
मानस बोध
अरूप मे खोया ।
धार मिली रसधार
अनन्त मेँ
अन्तर रूप
अनूप मेँ खोया ।
अमृत तत्त्व के
कौन कहे
अपरूप मे खोया ।
रश्मियाँ दिव्य
विकीर्ण हुई
तो लगा अनमोल
स्वरूप मे खोया ।
साध लिया जब
शाश्वत शक्ति ने
मानस बोध
अरूप मे खोया ।
धार मिली रसधार
अनन्त मेँ
अन्तर रूप
अनूप मेँ खोया ।
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