सत्य अहिंसा परम धर्म है ।
भेदभाव मत सहना
मित्रों ।
शासन मे बैठे लोगों के
बड़े बड़े घोटाले देखे ।
नैतिकता पर ताले देखे ।
नेता . अफसर और
माफिया
हम बिस्तर
हम प्याले देखे ।
राष्ट्रवाद का स्वर
अलापते
भ्रष्ट आचरण वाले देखे ।
ऊपर से चिकने चुपड़े हैँ
अन्दर अन्दर काले देखे ।
यह भारत माँ के कलंक हैं
इनसे बचकर रहना मित्रो !
पढ़ लिखकर नौकरी पा गये ।
भ्रष्ट हुए योजना खा गये पद पाकर धनवान हो गये ।
सत्ता मिली महान हो गये ।
माता पिता सभी को भूले अहंकार मे रहते फूले धर्म कर्म ईमान बेचकर
हिला रहे जनता की चूलें
यह भारत माँ के कलंक हैं ।
इनसे बचकर रहना मित्रों !
सदनों मे हैं चोर उचक्के देखो ! घूसखोर हैं पक्के
जिन्हे देख सब हक्के बक्के
भले आदमी खाएँ धक्के ।
सांसद और विधायक निधि ने
जाम किए शासन के चक्के ।
घोर कमीशनबाजी देखो
अनाचार के चौए छक्के ।
यह भारत माँ के कलंक हैं
इनसे बचकर रहना मित्रों ।
( क्रमश: )
शनिवार, 8 जनवरी 2011
शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010
व्यंग्य मे बड़ी दम है । साहित्य की माँग कम है ।
ब्लाँग लिखना अच्छा लगता है और उससे भी अधिक अच्छा लगता है अधिक से अधिक ब्लाँग पढ़ना । कितने मनीषी और सुधी रचनाकारोँ के रचना संसार से साक्षात्कार का सौभाग्य मिलता है ।
मजेदार तो यह है कि स्वयंभू भी मिले और भूलोक के सहज भी मिले । हमने व्यंग्य के स्थान पर भक्ति एवं श्रृंगार को ब्लाँगोन्मुख किया लेकिन उसकी माँग कम दिखी ।
व्यंग्य के पाठक भी अधिक हैं और टिपकर्त्ता भी लेकिन गालियाँ भी आशातीत मिलती हैं ; शब्दकोश की परिधि से परे ।
व्यस्त हैं
======
देश
जनता
जनतन्त्र
इतिहास
भूगोल
पौरुष
पराक्रम
महापुरुष
प्रेरणाएँ
अस्त हैं ।
मानस
कलावन्त
वैज्ञानिक
सौन्दर्य
रचनाधर्मिता
साहित्य
संस्कृति
संगीत
सृजन
संत्रस्त हैं ।
सच्चरित्र पस्त हैं ।
दुश्चरित्र जबर्दस्त हैं ।
बुद्धिजीवी व्यस्त हैं ।
राजनेता अभ्यस्त हैं
इधर से उधर ।
वाह रे ! अधर ! !
अधर पर अधर ?
मजेदार तो यह है कि स्वयंभू भी मिले और भूलोक के सहज भी मिले । हमने व्यंग्य के स्थान पर भक्ति एवं श्रृंगार को ब्लाँगोन्मुख किया लेकिन उसकी माँग कम दिखी ।
व्यंग्य के पाठक भी अधिक हैं और टिपकर्त्ता भी लेकिन गालियाँ भी आशातीत मिलती हैं ; शब्दकोश की परिधि से परे ।
व्यस्त हैं
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देश
जनता
जनतन्त्र
इतिहास
भूगोल
पौरुष
पराक्रम
महापुरुष
प्रेरणाएँ
अस्त हैं ।
मानस
कलावन्त
वैज्ञानिक
सौन्दर्य
रचनाधर्मिता
साहित्य
संस्कृति
संगीत
सृजन
संत्रस्त हैं ।
सच्चरित्र पस्त हैं ।
दुश्चरित्र जबर्दस्त हैं ।
बुद्धिजीवी व्यस्त हैं ।
राजनेता अभ्यस्त हैं
इधर से उधर ।
वाह रे ! अधर ! !
अधर पर अधर ?
रविवार, 24 अक्तूबर 2010
चित्तौड़ मे आयोजित मीरा महोत्सव पर एक छन्द । मीरा
विष दो या मुझे
अमरत्व ही दो
पति मान चुकी
घनश्याम को हूँ ।
इन बन्धनोँ मेँ
बँधना है नहीँ
सब त्याग चुकी
धन धाम को हूँ ।
अपना लिया है
अपने प्रिय को
मन दे चुकी
लोक ललाम को हूँ ।
मन मीरा बना
विष पीना पड़ा
अनुमान चुकी
परिणाम को हूँ ।
अमरत्व ही दो
पति मान चुकी
घनश्याम को हूँ ।
इन बन्धनोँ मेँ
बँधना है नहीँ
सब त्याग चुकी
धन धाम को हूँ ।
अपना लिया है
अपने प्रिय को
मन दे चुकी
लोक ललाम को हूँ ।
मन मीरा बना
विष पीना पड़ा
अनुमान चुकी
परिणाम को हूँ ।
शनिवार, 9 अक्तूबर 2010
माँ की असीम शक्ति एक छन्द
अवगाहन मे उस
अमृत तत्त्व के
कौन कहे
अपरूप मे खोया ।
रश्मियाँ दिव्य
विकीर्ण हुई
तो लगा अनमोल
स्वरूप मे खोया ।
साध लिया जब
शाश्वत शक्ति ने
मानस बोध
अरूप मे खोया ।
धार मिली रसधार
अनन्त मेँ
अन्तर रूप
अनूप मेँ खोया ।
अमृत तत्त्व के
कौन कहे
अपरूप मे खोया ।
रश्मियाँ दिव्य
विकीर्ण हुई
तो लगा अनमोल
स्वरूप मे खोया ।
साध लिया जब
शाश्वत शक्ति ने
मानस बोध
अरूप मे खोया ।
धार मिली रसधार
अनन्त मेँ
अन्तर रूप
अनूप मेँ खोया ।
शनिवार, 18 सितंबर 2010
एक छन्द : त्यागने वाले मिले ।
रस रंग की बात
करो न अली !
बस रूप को
माँगने वाले मिले ।
सुख जानने वाले
अनेक मिले .
दुख देखकर
भागने वाले मिले ।
सुमनोँ को मिला
जहाँ गन्ध पराग
वहाँ कण्टक
मतवाले मिले ।
कितनी बड़ी त्रासदी
है जग मेँ
अपनाकर
त्यागने वाले मिले ।
करो न अली !
बस रूप को
माँगने वाले मिले ।
सुख जानने वाले
अनेक मिले .
दुख देखकर
भागने वाले मिले ।
सुमनोँ को मिला
जहाँ गन्ध पराग
वहाँ कण्टक
मतवाले मिले ।
कितनी बड़ी त्रासदी
है जग मेँ
अपनाकर
त्यागने वाले मिले ।
शनिवार, 11 सितंबर 2010
एक छंद : विसंगति
जिसको यहाँ कंचन
रूप मिला
उसको प्रिय गेह
मिला ही नही ।
सुमनो को मिला
रस गंध पराग .
परन्तु सनेह
मिला ही नही ।
भ्रमरो ने किया
रसपान सुचारु
कभी अधरोँ को
सिला ही नही ।
प्रिय कैसी विसंगति
है जग की
बिना शूल के
फूल खिला ही नहीँ ।
रूप मिला
उसको प्रिय गेह
मिला ही नही ।
सुमनो को मिला
रस गंध पराग .
परन्तु सनेह
मिला ही नही ।
भ्रमरो ने किया
रसपान सुचारु
कभी अधरोँ को
सिला ही नही ।
प्रिय कैसी विसंगति
है जग की
बिना शूल के
फूल खिला ही नहीँ ।
गुरुवार, 2 सितंबर 2010
घनश्याम ; एक छंद
छंद में भगवान कृष्ण के प्रति अगाध प्रेम की अभिव्यक्ति है । अप्रैल 1998 ।
घनश्याम के अंक
लगी लगी मैं
कर पल्लव बेनु
बनी हुई हूँ ।
चिर साधिका हूँ
मनमोहन की
रति रंग की धेनु
बनी हुई हूँ ।
सखि ! नेह की डोर से
हूँ बँधी मैं
मनमोहन रूप
सनी हुई हूँ ।
स्वर , रश्मियों में
उन्मत्त हूँ मैं
पद पंकज रेनु
बनी हुई हूँ ।
घनश्याम के अंक
लगी लगी मैं
कर पल्लव बेनु
बनी हुई हूँ ।
चिर साधिका हूँ
मनमोहन की
रति रंग की धेनु
बनी हुई हूँ ।
सखि ! नेह की डोर से
हूँ बँधी मैं
मनमोहन रूप
सनी हुई हूँ ।
स्वर , रश्मियों में
उन्मत्त हूँ मैं
पद पंकज रेनु
बनी हुई हूँ ।
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